tag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post2729150047755251030..comments2023-11-02T19:59:11.734+05:30Comments on अज़दक: अच्छी हिंदी: एकazdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.comBlogger11125tag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-63425022000569628762007-05-17T14:00:00.000+05:302007-05-17T14:00:00.000+05:30प्रमोद भाई, यह उद्धरण 'का भासा का संस्कृत प्रेम चा...प्रमोद भाई,<BR/> यह उद्धरण 'का भासा का संस्कृत प्रेम चाहिए सांच' तुलसी का है . पर मेरी टिप्पणी से ऐसा लगता है मानो यह कबीर का हो . <BR/> इसी लिए यह स्पष्टीकरण .Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-52574901130839807102007-05-15T15:38:00.000+05:302007-05-15T15:38:00.000+05:30भाषा व्याकरणसम्मत होने से ही अच्छी नहीं हो जाती . ...भाषा व्याकरणसम्मत होने से ही अच्छी नहीं हो जाती . उससे वह मानक भले ही होती हो . अगर ऐसा होता तो सबसे अच्छी भाषा व्याकरणाचार्यों की होती .<BR/><BR/>अच्छी भाषा या अच्छी हिंदी के लिए तो और-और बातें चाहिए . बोलियों की छोंक चाहिए . शब्दों से प्रेमपूर्ण खिलवाड़ की आदत चाहिए .अपनी भाषा की कविता और अपनी भाषा के संगीत से थोड़ा लगाव चाहिए . प्रतिवेशी भाषाओं से सौहार्दपूर्ण संबंध चाहिए . थोड़ी क्षेत्रीय अस्मिता चाहिए और उसके साथ चाहिए सामासिकता-सिक्त जातीयता . थोड़ी प्रतिभा चाहिए और थोड़ा प्रेम उस भाषा और उसके बोलने वालों से;थोड़ी परम्परा चाहिए और थोड़ा औघड़पन;पर सब कुछ एक ठीक-ठीक अनुपात में . और उस अनुपात का माप किसी के पास नहीं है .<BR/><BR/>और तब बड़े भाषा-शिक्षक कबीर याद आते हैं : 'का भासा का संस्किरत प्रेम चाहिए सांच'.<BR/><BR/>व्याकरण जानना चाहिए पर यह भी समझना चाहिए कि व्याकरण भाषा के लिए है , भाषा व्याकरण के लिए नहीं .<BR/><BR/>भाषा व्याकरण से नहीं प्रेम से बनती है .Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-284601537531015172007-05-11T04:18:00.000+05:302007-05-11T04:18:00.000+05:30दुनिया को कडी नज़र से देखने वालो को खुद के लिये नर्...दुनिया को कडी नज़र से देखने वालो को खुद के लिये नर्मी की उम्मीद नही रखनी चाहिये ...फिर परम्परा भंजक पतनशील साहित्य सर्जको को दीनता और हीनता की परम्परा ज़रूरत ना सही मजबूरी के चलते ही जारी रखने के लिये कुछ इस तरह साधुवाद देना पडेगा के दरिद्रता के साम्राज्य मे एक और भिक्षुक का स्वागत है .अपराजितhttps://www.blogger.com/profile/04145632302072616478noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-73261241028900412442007-05-11T03:39:00.000+05:302007-05-11T03:39:00.000+05:30दुनिया को कडी नज़र से देखने वालो को अपने लिये न्रर्...दुनिया को कडी नज़र से देखने वालो को अपने लिये न्रर्मी की उम्मीद नही रखनी चाहिये .अपराजितhttps://www.blogger.com/profile/04145632302072616478noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-40721257390006667472007-05-11T00:29:00.000+05:302007-05-11T00:29:00.000+05:30प्रमोद जी, हम भी उन अपराधियों में हैं जिनका जिक्र ...प्रमोद जी, हम भी उन अपराधियों में हैं जिनका जिक्र स्वामीजी ने किया है अपने लेख में। हम तब से अपना मुंह छिपाये घूम रहे हैं। आपने हमारी बात कह दी अच्छा लगा! :)अनूप शुक्लhttps://www.blogger.com/profile/07001026538357885879noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-69965250251432697632007-05-10T23:20:00.000+05:302007-05-10T23:20:00.000+05:30प्रमोद जी, हिन्दी भाषा हर जगह अलग-अलग बोली जाती है...प्रमोद जी, हिन्दी भाषा हर जगह अलग-अलग बोली जाती है। उस के लिए किसी को शर्मिंदा करना बुरी बात है। हम भारतीयों को तो खुश होना चाहिए जब कोइ हिन्दी बोले या लिखे। भाई हम तो हिन्दी ब्लोगरो का स्वागत करते रहेगे।परमजीत सिहँ बालीhttps://www.blogger.com/profile/01811121663402170102noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-26378959331049190322007-05-10T21:25:00.000+05:302007-05-10T21:25:00.000+05:30आज समय की इतनी किल्लत है कि बात का दो टूक होना जरू...आज समय की इतनी किल्लत है कि बात का दो टूक होना जरूरी हो गया है। लंबी भूमिका, आत्मगत कथन और अवांतर प्रसंग भाषा को बोझिल बनाने वाली चीजें हैं। भाषा के बारे में ज्यादा सोचने से आप भाषा ही बुनने लगते हैं। मैंने ऐसे कई लेखक देखे हैं जो भाषा ही बुना करते हैं। अनुभव को भाषा में व्यवस्थित करने के लिए पहले अनुभव को व्यवस्थित होना होता है। असल बात यही है कि बात ही बोलती है।...जब हम बोलने लगते हैं तो गड़बड़ शुरू हो जाती है...<BR/>S.P. saidAnonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-37353320733658455122007-05-10T20:54:00.000+05:302007-05-10T20:54:00.000+05:30अच्छी हिंदी बोलना-लिखना *ज़रूरी* न हो, पर अच्छी हिं...अच्छी हिंदी बोलना-लिखना *ज़रूरी* न हो, पर अच्छी हिंदी सुनने-पढ़ने में अच्छी लगती है इतना तय है. <BR/><BR/>मेरा यह सोचना है कि अच्छी हिंदी (बल्कि किसी भी भाषा) के घटकों में मानक व्याकरण प्रयोग, सुन्दर और स्पष्ट वाक्य रचना, सहज शब्दों का चयन और उनके मानक रूपों का इस्तेमाल मुख्य हैं. अच्छे लेखक और वक्ता इसके लिए संदर्भ का काम करते हैं. इसके इतर की बातें सब्जेक्टिव हैं जो मेरी अच्छी हिंदी को आपकी अच्छी हिंदी से अलग बनाती है. और यही सब्जेक्टिवता हर लेखक को उसकी शैली देती है. माहौल और आनन्दमय होता है.<BR/><BR/>अच्छी हिंदी की ज़रूरत पर भी सवाल उठते हैं. इसलिए बात किस धरातल पर हो रही है यह तय कर लेना ज़रूरी है. सिर्फ़ आम रोज़मर्रा बोलचाल से सम्प्रेषण की बात हो तो कुछ भी चलेगा. पर बात साहित्यिक, वैचारिक, तकनीकी (या मनोरंजक भी)लेखन की हो रही हो तो 'अच्छी हिंदी' सम्प्रेषण की शक्ति और सटीकता ही नहीं, निर्मल-आनन्द को :) भी बढ़ाती है. मेरे विचार से इस बहस में बोली और लिखी जाने वाली भाषाओं को भी अलग-अलग कर लेना चाहिए. बोलते वक़्त भाषा के अलावा हमारी शारीरिक भाषा और आँखें काफ़ी काम कर देती हैं. लिखते वक़्त ये औज़ार हमें उपलब्ध नहीं होते. इससे भी भाषा का तेवर बदलता है. <BR/><BR/>इसके बाद घटकों को अलग-अलग करना (कम से कम पहचानना) भी ज़रूरी है, क्योंकि ये स्वतंत्र चिंतन माँगते हैं. जब आप सुनिये/सुनिए या ख/श्व में फ़र्क़ की बात करते हैं तो आप वर्तनी मानकों की बात कर रहे हैं. और चेष्टा/प्रयास/कोशिश के मामले में शब्दचयन और आंचलिक प्रभावों की.<BR/><BR/>पर तकलीफ़नामा आपका निजी तो कतई नहीं है. मुझे विश्वास है कि कई साझेदार तो यहीं चिट्ठाजगत में मिल जाएँगे. झोला खोलिए. सोच सुनाइए. ज्ञान बढ़ाइए.v9yhttps://www.blogger.com/profile/07973018577021600722noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-67258709483409033142007-05-10T19:17:00.000+05:302007-05-10T19:17:00.000+05:30यही तो मज़ा है, अफ़लातून भाई.. कि हम भाषा में दो क...यही तो मज़ा है, अफ़लातून भाई.. कि हम भाषा में दो कदम आगे चलकर दो कदम पीछे भी लौटते रहते हैं.. 'में' और 'से' के बीच डोलते रहते हैं.. और आप हैं कि मज़ा बिगाड़ने चले आए.. मैं निम्न मध्यवर्गीय परिवार के एक ऐसे बिहारी बच्चे की हिंदी से जूझ रहा हूं जिसकी शुरुआती पढ़ाई उड़ीसा में हुई.. आप एक 'देसाई' के बनारस जैसी नगरी में हिंदी से जूझने की कुछ परतें क्यों नहीं खोलते? आज एक मित्र को सुझा रहा था कि मिल-जुलकर हिंदी के नाम पर एक समूह ब्लॉग खोला जाए जो भाषा, अभिव्यक्ति, विशिष्ट अनुभव व विज्ञान सारी तरह की पेचिदगियों का एक जगह संकलन करती चले. क्या कहते हैं? विचार कैसा है?azdakhttps://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-74068826193887209302007-05-10T18:57:00.000+05:302007-05-10T18:57:00.000+05:30" शर्म में भस्म " या " शर्म से भस्म " ?" शर्म में भस्म " या " शर्म से भस्म " ?Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-82872188027019288002007-05-10T18:49:00.000+05:302007-05-10T18:49:00.000+05:30आप कह रहे हैं तो सोचना पड़ेगा, सोचते हैं. सारी समस...आप कह रहे हैं तो सोचना पड़ेगा, सोचते हैं. सारी समस्या यही है कि स्थिति शोचनीय है लेकिन कुछ शौचनीय भी लिख रहे हैं, टोकने पर बुरा मानने का ख़तरा रहता है, मैंने किसी को नहीं टोका है, लेकिन टोकने वालों का हाल देखा है...बहरहाल, आप संघर्ष कीजिए हम आपके साथ हैं.अनामदासhttps://www.blogger.com/profile/06852915599562928728noreply@blogger.com