tag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post5750605892306799140..comments2023-11-02T19:59:11.734+05:30Comments on अज़दक: तंगहाल समाज में कलाकार होने का मतलब: छहazdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-73779149604687559602007-02-16T13:12:00.000+05:302007-02-16T13:12:00.000+05:30भूपेन प्यारे, पामुक ने सेल्फ प्रोमोशन की कोई स्...भूपेन प्यारे, पामुक ने सेल्फ प्रोमोशन की कोई स्ट्रेटजी बनाई हो तो मुझे उसकी जानकारी नहीं. मगर बाज़ार और बाज़ारु एजेंट आज की सच्चाई हैं, लेखक उससे स्वतंत्र नहीं. फिर पश्चिम में प्रकाशन बडा धंधा है. सवाल यह है, जैसे तुमने खुद सार्त्र को याद करते हुए कहा है, कि लेखक अपनी लेखनी में कर क्या रहा है. और पामुक ने अपने थोडे सात-आठ किताबों से जितना किया है वह आज के लुंज-पुंज साहित्यिक परिदृश्य में- जंगल में लगे धधकते आग से कम नहीं.azdakhttps://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-34186468408013351892007-02-16T12:13:00.000+05:302007-02-16T12:13:00.000+05:30कुछ दिन पहले आपके ही ब्लॉग में पढ़ने की आदत के छूट...कुछ दिन पहले आपके ही ब्लॉग में पढ़ने की आदत के छूटने या छूटते चले जाने के बारे में कवितानुमा कोई चीज़ पढ़ी थी. वो द्वंद्व अपना लगा. कुछ ठोस करने और खोखला हो जाने के बीच का जो अंतर है उसमें मुझ जैसे कई लोग आज खोखले होते जा रहे हैं. किताबें लुभाती हैं. ख़रीद भी लातें हैं. पढ़ नहीं पाते. नौकरी बजाते-बजाते मशीन बन जाने की परिणति हमने ख़ुद ही चुनी है. मुक्त होने के मामले में सार्त्र की एक बात मुझे बार-बार याद आती है कि इस बात का कोई मतलब नहीं कि हम क्या हो सकते थे महत्वपूर्ण ये है कि हम क्या है और क्या कर रहे हैं. <BR/>ख़ैर, ये बातें ओरहान पामुक को फिर से पढ़ते हुए अचानक कुछ उथल-पुथल सी मचाने लगी हैं. ओरहान को मैं स्नो के राइटर के तौर पर जानता हूं. दो-ढाई साल पहले जब पढी थी तो मैं पामुक का दीवाना सा हो गया. काफी वक़्त पहले इस्तांबुल भी पढ़ने की कोशिश की क़रीब एक चौथाई पढ़ने के बाक़ी के पन्ने शायद मेरे अगले जन्म का इंतज़ार कर रहे हैं. <BR/>फटेहाल मुल्क में कलाकार होने का मतलब तलाशने वाली मिस्र की एक फिल्म याद आ रही है--आई लव सिनेमा--आपने शायद देखी होगी. कौन डायरेक्टर था ये अब याद नहीं लेकिन मेरे पास उसकी कुछ यादें बची हैं. फिल्म थी अद्भुत. एक बच्चे को केंद्र में रखकर कलाविरोधी समाज में कला के मानवीय पहलुओं को सामने लाने वाली. <BR/>एक बात और शेयर करना चाहता हूं. जब से ये पता चला कि पामुक की लोकप्रियता में बाज़ार और बाज़ार की राजनीति करने वालों का भी हाथ है तब से उसे लेकर कुछ दूरी सी महसूस करने लगा. ये बात और है कि उसका लिखा आज भी मुझे लुभाता है. पामुक को भी तो अपने साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए मार्केटिंग एजेंट रखने पड़ते हैं. क्या हमारे समय की सारी प्रतिभाएं आख़िरकार बाज़ार के हिसाब से ही चलने को अभिशप्त हैं? फिर तो बाज़ार जिसको बड़ा बनाएगा वो ही बड़ा कहलाएगा. आपकी राय का इंतज़ार रहेगा. बातों का कोई तारतम्य नहीं है. मन जो कुछ उमड़-घुमड़ रहा था जल्दबाज़ी में लिख रहा हूं. आशा है मतलब की बातें पकड़ में आ जाएंगी.Bhupenhttps://www.blogger.com/profile/05878017724167078478noreply@blogger.com