tag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post7677706402542621843..comments2023-11-02T19:59:11.734+05:30Comments on अज़दक: अच्छी हिंदी: दोazdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-34803245951234708282007-05-11T20:21:00.000+05:302007-05-11T20:21:00.000+05:30हिंदी फिल्मों की तरह पैन-इंडिया द्वारा भाये जाने ...<I>हिंदी फिल्मों की तरह पैन-इंडिया द्वारा भाये जाने का व्यर्थ मोह न पालें</I><BR/><BR/>बल्कि अब तो एक क़दम और आगे (?) बढ़ गए हैं भाईलोग. अब तो उनके लक्षित दर्शक या तो देश से बाहर के हैं या वे जो रहते भले देश में हों जीते बाहर ही हैं. लगभग सभी हिंदी फ़िल्मों में नामसूची (क्रेडिट्स) का सिर्फ़ अंग्रेज़ी में आना इसका एक दुखदायी लक्षण है. दुनिया की किसी भाषा की फ़िल्मों में यह प्रवृत्ति इतनी व्यापकता और लज्जाहीनता से दिखाई नहीं देती. पर ऐसी इंडस्ट्री (जिसमें फ़िल्मकार और फ़िल्म-पत्रकार दोनों शामिल हैं) से और क्या उम्मीद की जा सकती है जो अपने आप को "बॉलीवुड" कहलाने में गर्व अनुभव करे. <BR/><BR/>(सेकंड ट्रैक: मुझे पता नहीं इस बारे में कोई क़ानून है या नहीं पर मेरे ख़याल से तो यह सीधा सीधा उपभोक्ता अधिकारों का भी मामला बनता है. उसी तरह जैसे दवाइयों के नाम हिंदी में न होना था (जो अब सुधारा गया है). क्या 'केवल हिंदी' जानने वालों को ये जानने का हक़ नहीं कि फ़िल्म का छायांकन किसने किया या फ़िल्म के सहायक संगीत निर्देशक कौन थे. कुछ होना ज़रूर चाहिए. शर्म तो इन्हें आएगी नहीं.)<BR/><BR/><I>क्या यह युक्तिसंगत नहीं होगा कि हिंदी को हम- मराठी, बंगाली या मलयालम, तमिल की तरह- क्षेत्रीय मार्मिकताओं की तरफ- जितना संभव, सुगम बनता हो- लिये चलें. नोयेडा और नवी मुंबई की हिंदी ज़रा आड़ा-तिरछा चलती है तो उसे चलने दें उसकी आड़ी-तिरछी अटपट चाल, नाक-भौं न सिकोड़ें.</I><BR/><BR/>पूरी सहमति. पर मेरे ख़याल से "जितना संभव, सुगम बनता हो" इसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. सवाल है "कितना". और इसी कितने का जवाब मानक का निर्धारण करता है. मैं सरकारी या संस्थागत मानकों की बात नहीं कर रहा, हालाँकि वे भी इसका हिस्सा हो सकते हैं. पर मूलतः वे मानक जो उस भाषा समाज के साहित्यिक लेखकों और पाठकों की आम स्वीकृति से उपजे हों. कम से कम लेखन में एक सीमा-मर्यादा ज़रूरी है. यही मर्यादा भाषा का व्याकरण है. <BR/><BR/>पठनीयता, सुगमता, और संप्रेषण क्षमता बिना पूर्व संदर्भों से जुड़े या बिना व्याकरण सम्मत हुए आनी मुश्किल होती है. आंचलिक लहजों को बोली में तो पकड़ा जा सकता है पर अगर उन्हें लिखने भी लगे तो वे पठनीयता में मुसीबत ही करेंगे. <A HREF="http://www.tarakash.com/joglikhi/?p=190" REL="nofollow">संजय की समस्या</A> नज़दीकी मिसाल है. 'सुना', 'सूना' हो जाएगा और 'कोशिश', 'कोशीष'. <BR/><BR/>पर हाँ, ये ज़रूरी है कि यह व्याकरण हमारी बोली से ही उपजे. यानी वर्णनात्मक (डिस्क्रिप्टिव) हो, निर्देशात्मक (प्रिस्क्रिप्टिव) नहीं. <BR/><BR/>मुझे नहीं लगता कि आप भी व्याकरण या मानकों से हटने की वकालत कर रहे हैं. ये न हुए तो 'रहना <B>हैं</B> तेरे दिल में' और 'मैंने जाना है' ('मुझे जाना है' के अर्थ में) से आपको कौन बचाएगा.v9yhttps://www.blogger.com/profile/07973018577021600722noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2179815305421953170.post-65623124749528612022007-05-11T14:41:00.000+05:302007-05-11T14:41:00.000+05:30हमारे पास शुद्ध कुछ भी बचा है क्या ? खिचडी भाषा , ...हमारे पास शुद्ध कुछ भी बचा है क्या ? खिचडी भाषा , खिचडी संस्कृति । मजाल है कि दो वाक्य बिना अंग्रेज़ी शब्द इस्तेमाल के हम बोल लें । और अगर बंगला , तमिल, तेलुगु ,मराठी जानते हैं तो उसके भी कुछ शब्द सजा लें ।ये किये बिना हमारी जान नहीं चली जाय ? <BR/>जितने प्रदेशों में आप रहे हों आपकी भाषा उतनी ही समृद्ध होती जाती है । तो वैसे सवाल तो पूछ गया है सिर्फ तीन गुनी जनों से पर बोलेंगे तो हम भी कि चलिये मनाते हैं जलसा खोजते हैं उन शब्दों को दोबारा जिन्हें बिसरा दिया था , मनाते हैं उत्सव प्लुरलिज़्म का , लगाते हैं एक अक्रोबैटिक कूद शब्दजाल में , करते हैं इस्तेमाल देशज शब्दों का यानि चलिये लिखते रहते हैं हमसब जैसे लिखते आ रहे है , अब तक ।Pratyakshahttps://www.blogger.com/profile/10828701891865287201noreply@blogger.com