(गुड़गांव है. दो दिन पहले की फोटो है, गुड़ इसमें कहीं नहीं दिख रहा) |
मैं खोजी पत्रकार नहीं
हूं, होता तो पुरानी इच्छा थी, पता करता महानगरों में मलबा किन सूरतों कलेक्ट
होकर कैसे चैनलाइज होता अंत में पहुंचता कहां और निपटता कैसे है. या सीवर की साफ़-सफ़ाई, प्रबंधन और
निकासी की व्यवस्था क्या है. लेकिन मैं पत्रकार नहीं हूं. बहुत होशियार भी नहीं
हूं. नृतत्वशास्त्र के निएंडरथल को सामने देखकर अब भी रूह फना होती है कि जीवन
में वह दिन कब आएगा जब इस शब्द को सहजभाव पढ़ और लिखकर आगे बढ़ निकलूंगा. आगे बढ़ न भी
निकलाा, इस अहसास में भर जाऊंगा कि शहरों में हमारा जो भी जीवन है, निएंडरथल के
संघर्षों का नहीं है. क्योंकि दैनिक जीवन का दैन्यभाव रोज़-रोज़ जीते हुए लगता
तो नहीं कि नहीं है. मुंबई की बरसती बरसात की नमी में अभी चैन का सुख पसरता नहीं
कि जल्दी ही घबराहट भी अपने हाथ-पैर पटकना शुरु कर देती है कि नम हवाओं के
रिसोर्स मटिरियल की ज़रा और बढ़त हुई तो कहीं ऐसा न हो वापस सड़कों पर ट्रैफिक बैठ
जाए. शहर जैसे और जिस तरह से सीमेंट और कंक्रीट के मकड़जालों में तब्दील हुए हैं,
क्या मजाल है कि कोई शहर जल और जीवन-जाम के खतरों से अपने सुरक्षित होने का झंडा
लहरा सके. ज़रा-सा जलप्लावन होगा, लहरदार ऐसे सारे झंडों के बहत्तर टुकड़े होंगे
और सब पानी में बह जाएगा. जाता दीख ही रहा है.
लोगों को ढंग से
पीने को पानी नहीं मयस्सर होगा लेकिन वर्ष के कुछ महीने होंगे जब जीवन पानी में
बह रहा, पानी-पानी हो रहा होगा. देश के नक्शे पर तीन ऐसे शहर उभर आएंगे जहां जीवन का मारा आम आदमी बीच
सड़क सांप खोज लेने और मछली मारने के अपने कौशल का प्रदर्शन करता दिख जाएगा, जो
अपनी कारों का प्रदर्शन करते सुबह घरों से निकले होंगे, कारों को बीच जल छोड़ किसी
सूरत घर लौटने का अपना कौशल खोजने में ढेर हो रहे होंगे. हो सकता है डूबे जन-जीवन
के नज़दीक ही कहीं फ्लैक्स का स्मार्ट सिटी का तैरता विज्ञापन कुछ दूर तक उन्हें
संगत भी देता चले. आने वाले दिनों और वर्षों में ये नज़ारे बार-बार हमारी घबराई
दृष्टिपटल को दृष्टि व सृष्टिसंपन्न करते चलेंगे.
मैंने ऊपर ज़िक्र किया था मैं पत्रकार हूं न होशियार हूं, मगर जिनके बगल और गिरेबानों में संसाधनों व नीतियों के सब हथियार हैं और जो मंचों पर हाथ लहराते स्मार्ट सिटियों के मंत्र-जापों से हवा में ताप का संचार करते रहते हैं, उनको कम से कम ठीक से इसकी ख़बर होगी कि वे क्या बोल रहे हैं, और उनकी बकलोलियों का ठीक मतलब क्या है. फ्लाइओवरों से शहर को गांज देंगे और ये फ्लाइओवर यहां से निकलकर वहां जाएगा और वो वहां से निकलकर उधर घुस जाएगा की चमकदार स्कीमें होंगी उनके पास, और भले वास्तविक फ्लाइओवर्स घोटालों से गुज़रकर उतने इस्पाती न साबित हों जितना स्कीम की कागज़ों पर प्रकट हुए थे, मगर बरसात का जल और शहर का मल निकलकर कहां से कहां जाएगा की प्राथमिक कार्यकुशल समझदारी उनके माथे में साफ़ होगी. और मुसीबत का भयावह कुरुक्षेत्र अचानक आंख के आगे उपस्थित हो जाएगा तो उसकी सीधी जवाबदेही होगी उनके पास, उपनगरीय बिल्डरों, प्रशासकीय इस विभाग और अनुभागों में वो बलि के बकरे गिनाते, अपने बगलों में झांकते, अपनी सुरक्षा-कवचों के फ्लाइओवर में उड़कर, ये आ और वो जा का गीत गुनगुनाते, गायब नहीं हो जाएंगे.
चक्कर यही है, और
उस चक्कर को समझने के लिए आपको खोजी पत्रकार और बड़ा होशियार होने की ज़रुरत नहीं
कि मुंबई को शांघाई और जलभरपुर को भरतपुर की स्मार्ट सिटी बना देने का दावा
ठोंकने वालों को सीरियसली शायद दूर-दूर तक हवा नहीं कि सत्ताइस दुराचारी इमारतें
और बाईस नए सुपर मॉल्स ठेल देने से इतर शहरों के प्रबंधन का सामान्य-ज्ञान क्या
है. और मंचों पर हवा बनाने और इस समूह को उस समूह से भिड़ा देने की कुशल कलाओं से
इतर सामाजिक जीवन के विकास के वास्तविक मंत्र क्या हैं.
समाज के प्रशासनिक
प्रबंधन का अस्सी नहीं तो साठ फीसदी अंग्रेजों के बनाये, छोड़े ढांचों की लीक पर
चल रहा है. बड़े स्तर पर आर्किटेक्चरल डिज़ाइन और बुनावट भी विश्वसनीय और स्तरीय
और दुरुस्त वही सब बना हुआ है, जो अपने ज़माने में अंग्रेज बनाकर और अपने पीछे छोड़कर गए हैं. इस
महाकाय बड़े देश में आज़ादी के बाद बीस ऐसे वृहताकार नगरीय शिल्प न होंगे जिसको
दुनिया के आगे घुमाकर हम अपने अचीवमेंट पर छाती न भी पीटें, छाती पर उंगली बजाकर
ही हर्षित हो सकें. मगर मंचों पर खड़े बेहयाइयों में हमारे मुंह से स्मार्ट
सिटियों का विकार छूटता रहता है. फ्लाइओवर्स शहर नहीं हैं, लोगों की आवा-जाही का
सहज सुभीता और नलों में जल हो और शहरों का मल जहां-जहां से निकल रहा हो, अपने
वाजिब गंतव्य तक पहुंच सके, हमारी नाक और हमारे जीवन में न घुसा आए, इस महादेश के महाबाहुबली कर्णधारो, पहले वह दुरुस्त करो, उसके बाद फिर, लहराकर, या घबराकर स्मार्ट, सिटी,
या स कुछ भी बोलना.
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