मालूम नहीं हंसी अभाव की भतीजन है, उसके सौतन की अबोली बेटी है, या तीन कदम पीछे जाकर मेरा हमेशा का सोचने का अभिनय करने लगना है कि घंटों की तैयारी के बाद, जब अंतत: आती है, हंसी के उस वास्तविक क्षण में, मुंह का पैर धरते ही, मैं लगभग हास्यास्पद महसूसने लगता हूं. शायद यही वज़ह होगी कि घबराहट में और हंसने लगता हूं. पासंग चार साल का बच्चा खड़ा हो, वर्षों से वही घिसा डायलाग बोलता रहा है, 'अंकल घोड़े जैसा हंस रहे हैं!'
मालूम नहीं कैसा रोग है, और क्यों है और कब ठीक होगा. या कभी होगा भी. जबकि अपनी बेटी के हाथों बनाये स्केच के कवरवाली श्री रघुवीरजी सहायजी का संकलन 'हंसो हंसो जल्दी हंसो' खरीदकर धरी हुई है मेरे पास, उसमें क्या और कैसी कविताएं हैं उसकी मुझे याद कतई नहीं हैं.
फिर भी कभी-कभी होता ही है कि एकदम हंसने लगता हूं. या, बेहयायी में हंसी का अभिनय करता दिखता. जबकि फ़ोटो उधारी की होती है. दिन उधारी का होता है. देह पर चांपे जिसकी ओट में मुंह पर रेखाएं खींचता हूं, वह तो शर्तिया ही उधारी की होती है.
(फोटो खिंचैया : उद्भौ यादौ)
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