बहुत साल हुए, अभी इंदिरा जी ठीक से नाराज़ नहीं हुई थीं, माननीय जगमोहन ने तुर्कमान पर बुल्डोज़र नहीं चढ़वाया था, माननीय रॉबर्ट कारो ने तंगहाली में अपनी जवानी खराब करते हुए एक दूसरे बुल्डोज़र चलानेवाले पर ''द पावर ब्रोकर'' के नाम से, अंतत: अपनी किताब खत्म कर ली थी. सवाल, शोध, पावर पर बैठे लोगों की रुसवाई, गुस्सा- कारो साहब का काम आसान नहीं था, मगर जवान को जूता घिसवाने, जवानी को जवाबों की किसी मंजिल तक पहुंचाने का फितूर चढ़ा था, और अमरीका का अब जैसा भी हाल हो रहा हो, अभी थोड़ा पहले तक बौद्धिक पगलेटियों के लिए दायें और बायें कहींं जगह निकल आया करती थी, सो कारो साहब की आखिरहा न केवल किताब छप गई, बीसवीं सदी में न्यूयॉर्क के सौंदर्यीकरण के शहंशाह रॉबर्ट मोसेस की असलियत और पोल-पट्टीी उधड़वाने के लिए पुलित्ज़र का पुरस्कार भी हासिल हुआ. जबकि हमारे यहां जांबाज पत्रकार आम तौर पर पावर देखते ही ब्रेक होने लगते हैैं. या पावर ब्रोकर से दोस्ताना के बहाने खोजने लगते हैं.
शायद गुरु नानक ने सही ही कहा है, या गुरु नानक के किसी जंगपुरा वाले चेले ने, कि पैर में जूते न हों तो गोड़ घिसवाना बड़ा दुर्घर्षकारी कार्य है. हिन्दुस्तान और नाइजीरिया तक के सारे संघर्षकारी पत्रकार साथी इत्तिफाक़ रखेंगे. मैैं पत्रकार नहीं हूं, फिर भी अपने डेढ़ जूताई अनुभव पर डंके की चोट से इत्तिफाक रख रहा हूं.
रॉबर्ट कारो के प्रारंभिक रॉबर्ट मोसेस शोधकाल की जिज्ञासा का एक बेसिक प्रस्थान बिंदु था: समाज में पावर का खेल चलता कैसे है. पावर नामक मशीन केे कल-पुर्जे और उसकी बुनावट क्या है. आने वाले वर्षों में जवान इसी सवाल के इर्द-गिर्द अपनी खोज-बीन में लगा रहा, और राष्ट्रधनी लिंडन जॉनसन पर चार पोथे तैयार किये, पच्चासी की उमर में अभी तक लगा हुआ है.
कहां से कैसे ऐसी ताक़त मिलती है आदमी लगा रहता है. या औरत. जो कि गौर किया जाये तुर्कन है, और कायदे से छेड़-छाड़ में उतरें तो जैसे तुर्की के हाल हैं, गंभीर डेंजर में ही होगी. मतलब आप तुर्की में रहकर तुर्की पर ऐसी किताब लिखेंगे तो पावर से जुड़ा कोई भी आपको सीरियसली ब्रेक करने चला आयेगा. खास तौर पर जबकि आप जनाना हों. मगर जनाना है कि लगी हुई है. दायं-फायं ये और वो लिख रही है. ये भी लिख मारा है, जिसे पढ़ते हुए मैं चिंतित हूं. यह और बात है कि नहीं पढ़ रहा था तब भी चिंतित ही था. जानता हूं आप भी पढ़ियेगा है नहीं, ऐसे ही हाथ और गोड़ पटकते रहियेगा. रहिये. ऐसे ही हाथ और गोड़ पटकने का भी अपना ही आनंद है.
वैैैैसे थक जाइये तब भी किताब पर लौट सकते हैं. थकेले में पढ़ने का देखिए, एक दूसरा आनंद होगा. शायद. अंजादे से कह रहा हूं. .
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