रविन्द्र वायकर राजनीति के पुराने सिद्ध खिलाड़ी हैं। 92 में महापालिका कॉरपोरेटर से शुरुआत की, 2009 में विधायकी हासिल की, मंत्री बने, विधायकी अभी तक साधे हुए हैं। अपनी खुशकिस्मती है कि उन्हीं के इलाके से हूँ। अलट-पलट कर उनकी महिमाओं की, दयाओं की गाज गिरती रहती है। कोरोना काल में हैंडवाश का वितरण करा दिया, कचरा-पेटी बटवा दी, ऐसा प्रेम उनकी ओर से ज़ाहिर होता रहता है। मगर इसे लिखवाना कभी नहीं भूलते कि कचरा पेटी वायकर की दया से नसीब हुआ है। हैंडवाश हो, बैठने का बेंच हो, सबकी सिद्धि वायकर की दानशीलता से हुई है। वायकर किसके दान से वायकर हुए हैं, ये उनके प्रचार में जुटा कोई फ्लैक्स सूचित नहीं करता।
एमएलए की ये वायकर शैली एक छोटे क्षेत्र की मिनीगाथा है।
राष्ट्रीय स्तर पे कौन इस कथा को साकार कर रहा है वो आप 2014 और उससे पहले 2001 से गुजरात में
देखते रहे हैं। छोटे स्तर पे वायकर हाथ पैर पटकते रहे हैं कि उन्हें सिर्फ विधायक
नहीं, ब्रांड समझा जाय। गुजराती महामहिम भी महामहिम होने के पहले से
ब्रांड के डंके का ही बाजा बजाते रहे हैं। गुजरात मॉडल आ गया है। आकर छा गया है।
अच्छे दिन ठेल-ठेलकर देश के कोने कोने तक नाक में दम कर देंगे। मोदीमय गुजरात मॉडल
कुछ ऐसा करिश्मा था कि बहुत सारे पत्रकार सर के बल खड़ा होके उसके दुलार में सोहर
गाते रहे। किसी ने कभी बताने की ज़रूरत महसूस नहीं की कि बला क्या है गुजरात मॉडल? वास्तविकता तो यह
थी कि गुजरात ने 92-97 तक मोदी
शासन से कहीं बेहतर दिन देखे! विकास के मामले में राज्य मोदी से पहले तीसरे नम्बर
पे था, मोदी के
बाद भी बना वहीं रहा। एक स्थूल आंकड़ा ये है कि लगभग 200 गांवों से अलग
समूचे राज्य का मोदी के आने से पहले बिजलीकरण हो चुका था।
अंग्रेजी की पत्रिका इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली के
दो पत्रकारों ने सवाल का संधान किया। सवाल था: क्या गुजरात का विकास दर मोदी के
शासनकाल में पूरे देश के विकास दर से किसी भी तरह से अलग रहा था? इसका जवाब पत्रकार
द्वय ढूँढ़ कर लाए, "नहीं"।
बेरोजगारी की दर छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में गुजरात से कम थी। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश
की दर महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और दिल्ली
में गुजरात से ज्यादा थी। मोदी के ज़माने में लाइफ़ एक्सपेक्टेंसी, आर्थिकी और शिक्षा
का हालचाल देने वाले मानव विकास सूचकांक के मामले में गुजरात अन्य राजों की तुलना
में पाँच स्थान नीचे गया- छठे से लुढ़क कर ग्यारहवें स्थान पर। बाल कुपोषण से बचाव
के मामले में 21वें स्थान
पर पहुँच गया। वॉल स्ट्रीट जर्नल के एक पत्रकार
के जवाब में मोदी श्री का बयान था कि गुजराती लड़कियाँ स्वास्थ्य से ज्यादा से रूप
के मोह में फंसी रहती हैं,
बच्चों को अपना दूध पिलाने से बचाती हैं। अर्थशास्त्री इंदिरा हर्वे ने बताया
कि गुजराती प्रशासन की स्ट्रेटेजी ही रही कि कॉरपोरेट घरानों को भारी छूट दो और
उन्हें सेल्स टैक्स से बचाये रखो। इसपर सरकार ने खूब पैसे लुटाए जबकि सच्चाई तो ये
थी कि 93 प्रतिशत
कामगार अनौपचारिक क्षेत्रों में थे। जहाँ केरल में 93 प्रतिशत लड़कियाँ सेकंडरी स्कूल शिक्षा पा रही थी, वहीं गुजरात में
ये आंकड़ा फ़क़त 29 प्रतिशत
था। लड़कों के मामले में भी ये कहानी वैसे ही थी, जहाँ केरल के 90 प्रतिशत
के बनिस्पत मोदी के गुजरात में 45 प्रतिशत
के ही नम्बर्स थे। इस मामले में सभी सर्वेक्षित राज्यों में गुजरात का दर्जा सबसे
खस्ताहाल था।
"गुजरात मॉडल" एक ऐसा मुहावरा
था जिसे मोदी ने गढ़ा और चलाया बिना इस बात में गए कि इसका ठीक-ठीक मतलब क्या था।
बाकी सरकारों की तुलना में ये सरकार जिस तरह से काम कर रही थी या जो कुछ भी अर्जित
किया था उसमें क्या अलग या नया था,
इसे कभी समझाया नहीं गया। विप्रो,
इंफोसिस और कॉग्निजेंट जैसी कम्पनियों के खड़ा होने का किसी कर्नाटक के नेता ने
श्रेय नहीं लिया, महाराष्ट्र की फ़िल्म-एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री, या फाइनेंस की
राजधानी होने पर किसी ने निजी दावा नहीं ठोंका, तमिलनाडु के विकास के
आंकड़े हो या हाल-फिलहाल की गुरुग्राम और हैदरबाद के विकास की कहानी, ये सभी विकास की सहज, ऑर्गेनिक
ट्रैजेक्टरी की तरह देखे गए। किसी ने भी कहीं किसी मॉडल के होने या उसके जनक होने
का निजी दावा नहीं किया। सिवाय मोदी के निजी उपक्रम से पैदाये गुजरात मॉडल के। जिसकी
हवा उनके दिल्ली में गद्दीनशीन होकर खुलनेवाली थी।
मुख्यमंत्री बनने के बाद मुख्य सचिव फाइलों का ढेर लेकर
मोदी श्री की मेज़ पर हाज़िर हुए। राज्य के ज़रूरी मसलों से सम्बंधित फाइलें थीं।
मोदी ने फाइलों की ऊँचाई देखी,
फाइलों को खोलकर भीतर नहीं देखा। कभी नहीं देखा। पढ़ने से उनका सिर दुखता है, वो हमेशा दो मिनट
में मसलों का सार जानने में यकीन रखते हैं। भारत जैसे बड़े और विहंगम समस्याओं वाले
देश में सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठा आदमी डिटेल और अध्ययन में नहीं, पॉवरपॉइंट
प्रेजेंटेशन में भरोसा रखता है। मंच पर जुमले उछालकर समां बांध लेने में उसका
भरोसा है।
ऐसा दिमाग़ एक फ़ौरन और चालू क़िस्म की बुद्धि पर चलता है।
ब्रांडिंग और नामकरण इस स्टाइल की जान हैं- किसको क्या कह दें कि उससे क्या निशाने
पे लग जाये- पर किसी भी असल प्रॉसेस से गहरी अरुचि फिर चाहे कोई कानून लिखना हो, कोई नीति तय करनी
हो या फिर कोई संस्था खड़ी करनी हो। ढेरों जुमले हमारे आगे बिखरे पड़े हैं, ‘मेक
इन इंडिया’, ‘नोटबंदी’, ‘सर्जिकल स्ट्राइक’,
‘स्मार्ट सिटीज़’, ‘नमामी गंगे’, ‘जनता कर्फ्यू’ ‘वोकल फॉर लोकल’, हवा में बहुत सारे ऐसे बैलून उड़ाये गए, आज सब कहां हैं
किसी को मालूम नहीं।
आकार पटेल की नई किताब, ‘मोदी काल की कीमत’
ऐसी ढेरों जानकारियों से ठंसी हुई है। साढ़े पांच सौ जेब से खलियाइये
और किताब में गंभीरली उतरना शुरु कर दीजिए।
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