इस तरह कैसे चलेगा? इतनी किताबों के साथ मैं जीवन किधर लेकर जाऊंगा? पढ़ना तो दूर, क़ायदे से इनमें झांकना भी न हो सकेगा! वैसे भी हो यही रहा है, झांकना, पढ़ना तो किसी और जनम में होगा। जितना मैंने एक इकट्ठा कर लिया है उतने की पढ़ाई के लिए एक जनम काफ़ी नहीं है। अब कल ख़बर लगी गेल ऑम्वेट निकल गईं। उनकी पांच किताबें किनारे करके धरी पड़ी हैं, पढ़ना सिर्फ़ एक का हुआ है, बाक़ी की कब पढ़ी जाएंगी? ऊपर पहुंचकर मिसेस पाटणकर को मैं कौन, कैसा मुंह दिखाऊंगा? मेरे पास जवाब नहीं है। बीस वर्षों का समय हुआ, गेल से हमेशा एक करीबी अंतरंगता का भाव मन में बना रहा है, मगर किताबों से, सच कहता हूं, मुझे गहरी नफ़रत है। पुरानी फ़िल्मों के केएन सिंह, और उसके बाद वाले दौर में प्राण से उतनी लोग नहीं किये होंगे, जितनी रह-रहकर मैं करता रहता हूं। किताबों से नफ़रत!
मालूम नहीं हरामख़ोर मुझसे चाहती क्या हैं। जो भी चाहती हों, मैं इनसे कुछ नहीं चाहता। इनको सीधी-सी इतनी बात समझ क्यों नहीं आती कि मैं भीतर के फड़फड़ाते पन्नों पर नहीं, इनके ‘कवर’ के मोह में इन्हें अपने साथ घर लेकर आया था, इनके साथ सच्चा प्यार-वार जैसा कुछ नहीं है। सच्चा प्यार कभी नतालिया गिंज़बुर्ग के साथ महसूस नहीं हुआ, चेज़रे पवेज़े और मागदा ज़ाबो के साथ नहीं हुआ फिर ये किस खेत की मूली हैं! मूली, भंटा, सतपुतिया, सालन कुच्छो नहीं हैं। सच्चे प्रेम वाली ले-देकर चार किताबें होती हैं, ठीक है, सात और आठ होती हैं, उससे ज्यादा जीवन को किताबी संग नहीं चाहिए। उससे आगे और बड़हन की पढ़ाई कभी सधेगी नहीं। इस दुनिया में आदमी किताब पढ़ने के लिए ही नहीं आया है। एक राजनीतिक परिदृश्य जैसा भी समाज का सवाल होता है, जिससे दो और चार होना होता है। बहुत बार आठ और सोलह भी होना होता है। सोलह वाले स्टेज में पहुंचकर आप किताब तो क्या, परचून का पुरची पढ़ने के भी लायक नहीं बचते ! मैं हाईस्कूल में फेल हुआ जभी से साइकिल भगाता, किताबों से खुद को बचाता रहा हूं (माफ़ करिये, प्रिय पाठक, ‘खुद’ के ख पर मैं नुक़्ता नहीं लगाऊंगा। हमारे ओर सधता नहीं है, बात खतम), मगर तीन किलोमीटर की दूरी पहुंचने के बाद साइकिल के कैरियर पर नज़र जाती है- कि किताबों का बंडल बंधा है! कहां से आईं, किसने लाद दिया, झुट्ठे की हमारी फंसान कर दी, इसमें से किसी सवाल का किसी के पास जवाब नहीं।
बहुत साल हुए कभी बहुत पिटाई हुई थी, बहुत रो चुकने की कुम्हलाहट में तब मौसी से भी मैंने यही कहा था कि चूल्हा में जाये किताब, हमको किताब से मतलब नहीं है। मौसी ने अंचरा में मेरा मुंह लुकाकर कहा था बाबू, चोट का डर से झूठ नहीं बोलते, बेटा। मुझको अपना रोना, एक ऐसे बदहाल, गंवार, नालायक घर में पैदा होना- सब व्यर्थ लगा था। बहुत बार की तरह उस दिन भी मैंने ठान लिया था मौक़ा लगते ही निकल भाग जाऊंगा ऐसे घर से, दुबारा लौटकर नहीं आऊंगा। चुपचाप दुनिया के किसी कोने गरम जलेबी कुतरता मिलूंगा, दक्खिन का मसाला डोसा बांधे और सुदूर कहीं दक्खिन निकल जाऊंगा। जिसको पढ़ना हो किताबें पढ़ता फिरे, मेरे फिरने को और दूसरी दुनियायें हैं। बहुत हुआ, अब मुझको नहीं मतलब किताबों से!
तब तक फ़ोन पर ग्रांटा का एक नोटिसिफिकेशन दिखने लगता है। असल में मैं देखना चाह नहीं रहा के फाल्स नज़रों से मैं नोटिसिफिकेशन चेक करता हूं। नोटिसिफिकेशन मुझे ट्व्टिर लेकर जाता है। ट्व्टिर पर फ़त्जि़ेराल्दो और वर्सो की नयी किताबों की ख़बर है। पढ़ने की मेरी हालत नहीं, अख़बार तक की नहीं है, मैं सिर्फ़ कवर देखकर आंखें सेंक रहा हूं, पंद्रह मिनट बाद अमेज़न पर जिसने किताब ऑर्डर की है वह व्यक्ति मैं नहीं हूं। होना ही होगा तो मेरा भूत होगा। और भूतों में मेरा विश्वास नहीं है।
(ऊपर फ़ोटो में नतालिया गिंजबुर्ग, 'दब्लैंकगार्डन डॉट कॉम से साभार)
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