दोपहर
चलते-चलते
गुम जाऊंगा
आगे कहीं फिर
दूर नज़र आऊंगा
सिर नवाये
हैरत में
हिसाब करता
संगीत का, मीत
का
सुनसान मौत
और संगीन समय
मुट्ठी में
भींचे चार टुकड़े
जोड़-तोड़
और
बेहिसाब रतजगों
का मरोड़
रेल की छूटती
सीटियों के सुरझरों में
एक नये पौधे
की अलसाहट में
झुका-झुका
उठता
फूट जाऊंगा।
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