Friday, September 10, 2021

दोपहर

 



चलते-चलते गुम जाऊंगा
आगे कहीं फिर
दूर नज़र आऊंगा
सिर नवाये हैरत में
हिसाब करता
संगीत का, मीत का
सुनसान मौत और संगीन समय
मुट्ठी में भींचे चार टुकड़े
जोड़-तोड़ और
बेहिसाब रतजगों का मरोड़
रेल की छूटती सीटियों के सुरझरों में
एक नये पौधे की अलसाहट में
झुका-झुका उठता
फूट जाऊंगा।

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