अच्छी किताबें हाथ नहीं आतीं। उम्मीद और सपनों के बीस तहखाने खंगालतें, आंखों पर पानी छींटते, ड्रॉप्स गिराते तीस किताबों के भंवर में आप पूरी-पूरी रात सफ़र में निकलते हो, और फिर पता चलता है कहीं नहीं पहुंचे। कहीं निकले भी नहीं। सफ़र के पोस्टर के पीछे फकत अंग्रेजी वाली सफरिंग थी।
कभी-कभी समूचा साल निकल जाता है, आप
ख़ुद को भुलावा देते हो कि तीस में तीन तो ऐसी बुरी नहीं थीं, मगर भीतर मन जानता है कि कुछ दिन बीतेंगे और तीन किताबों की तीन पंक्तियां
याद नहीं रहेंगी। बेमतलब रातों की लंबी ऊब याद रहेगी, बाकी मन
वैसा ही खाली-खाली और खोजिल, आकुल होगा, उसमें नया कुछ नहीं जुड़ेगा। फिर अचानक होगा एक किताब सामने चली आएगी,
जिससे आपने ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं की है। शायद उसे लिखनेवाले भी नहीं
की है। बाहर से देखने पर, भीतर उलटने-पुलटने पर उसमें ऐसा कुछ
ख़ास दीखेगा भी नहीं कि उसे कलेजे के करीब किया जाये। एक दर-ब-दर भटकते औसत धंधा करते सरवाइव कर रहे शरणार्थी
की ही तो कहानी है, एक अफ्रीकन पर्सपेक्टिव देती है, और क्या है? मगर किताब पढ़ने के फिर सालों-साल बाद भी
वह लौट-लौटकर आपके ख़यालों में आती रहेगी, असद अब्दुल्लाही
की ज़िंदगी का आगे क्या हुआ, मुंबई और दिल्ली, आसनसोल, बड़काकाना में किसी ने
जीवन में इस आकुलता से उतरकर झांकने की कोशिश क्यों नहीं की? कितनी सारी किताबें हैं जिनके नहीं छपने से कोई फर्क नहीं पड़ता, उसी तरह कितनी किताबें हैं जो अनलिखी बनी रहती हैं।
पिछले दिनों अफ़ग़ानिस्तान पर किताबें बटोर रहा था, दस-बारह
किताबें छांटकर एक तरफ़ कीं, पढ़ना शुरु किया, मगर किसी में मन रमा नहीं। छह साल हुए एक किताब नज़रों में आई थी, बीस-पचीस पेज़ पढ़े भी, फिर हुआ कि इराक पर एक प्यारी किताब में उलझ गया, आनंद गोपाल का अफ़ग़ानिस्तान पीछे रह गया।
कुछ दिन हुए, उसे फिर शुरु किया, किताब
जैसे बचपन के किसी पुराने संगी की तरह साथ लग गई, और अब जब किताब
खत्म हो गई है लगता है मन में तीस किताबों को खो देने का एक बड़ा गड्ढा पैदा हो गया
है!
सचमुच, अच्छी किताबें हाथ नहीं आतीं।
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