तेज़ी से इतने पर ही मैं समस्यामूलक लेखनी की शुरुआत कर सकता
था, मगर मैं कुछ भी न लिखूं, समस्या-प्रधान लेखन नहीं कर
सकता। सॉरी। समय बीतते के साथ देश और मन की बहुत सारी अर्थकारी गांठें, गठबंधन चुक जाते हैं, दोस्तियां पानी पी और पिला-पिला
कर खत्म हो जाती हैं, उपन्यास लिखना बचा रह जाता है। माने समस्यामूलक
तो थोक में लिखे और छपते जाते हैं, पढ़ते भले फेसबुक के पोस्ट्स
तक न जाते हों, असमस्यामूलक, अनर्थ व अर्थकारी
उपन्यास कहीं पहुंच नहीं पाता। पहुंच पाने के पहले लिखा भी नहीं जा पाता। मगर मैं
कोशिश में लगा हूं। तीस साल न भी कहूं, पिछले तीन महीनों से तो
लगा ही हूं। और ओरहान पामुक को बिना पलटे।
Friday, October 15, 2021
रात ने क्या-क्या ख़्वाब दिखाये..
ओरहान पामुक को बिना पलटते मैं लगातार अच्छे पांच सौ पेज़ी
भरकम उपन्यास की सोच रहा हूं। अब थोड़ा समय हुआ कि पलट कर, बार-बार
इस और उस तरह से सोच रहा हूं। रहते-रहते फिर यह भी सोचना होता है कि सारा मामला इतना
इक-तरफ़ा क्यों है। मैं इतना सोच रहा हूं जबकि उपन्यास कितना भी नहीं सोच रहा। यह
तक नहीं बता रहा कि आजकल ग्यारह साल के बच्चे हैं, ख़ास तौर
पर केरल प्रदेश के विस्थापित बच्चे हैं, पुणे में रहकर आयरलैंड
की कल्पनाओं का उपन्यास केवल लिख ही नहीं ले रहे, किंडल के
प्लेटफ़ॉर्म पर उसे दूर-दराज़ तक चर्चिच भी करा ले रहे हैं, मैं चर्चिच कराना तो दूर, किसी एक लैंड की कल्पना तक
नहीं कर पा रहा, मां ऊपर बादलों में छिपी इशारा कर सकती थी कि
यहां का लिखो, या वहां का, मगर दुष्टामी
मामुनि कुछ नहीं कर रही। इन दिनों सपनों में भी नहीं आती। इन दिनों सपनों में कुछ नहीं
आता। उपन्यास तो नहीं ही आ रहा। हां, यह कभी-कभार ज़रुर होता
है कि भोर में ताज़ा-ताज़ा आंख अभी लगी-लगी ही है, पैरों के बीच
तकिया दाबे का परम रोमानी क्षण है, कि अचनाक महसूस होता है कोई
जोरों से तकिया खींच रहा है। फ्रिज का पल्ला खुला हुआ है, पीली
रोशनी बाहर तक पसरी हुई है, और एक हाथ इकलौती लौकी की चोरी कर
रहा है- सन्नया मलता आंखें खोलता, झपकता हूं तो अमित शाह का
चेहरा नज़र आता है, एक्स्ट्रीम क्लोज़-अप, ये हालत हुई कि गरीब की लौकी और तकिये की चोरी कर रहा है? क्यों कर रहा है?
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