लिखना बड़ा मुश्किल काम है। हमेशा रहा है। ऐसे ही नहीं है कि
हाई स्कूल में दो मर्तबा फेल हुआ। क्योंकि फिजिकली एक्ज़ाम हॉल में पहुंच जाना ही
हाई स्कूल निकाल लेने के लिए काफ़ी नहीं, उसके बाद लिटरली लिखाई भी करनी पड़ती है। ज़ाहिर
है मैं तब भी इस सवाल से रूबरू हुआ था। कि लिखना मुश्किल काम नहीं है? और जब मुश्किल काम लिखना है ही तो माध्यमिक बोर्ड के लिए क्यों लिखें,
मैडेलिन, कोल्मबिया के अपने पैशनेट पाठकों के लिए
क्यों न लिखें? नौ सौ पृष्ठों का दीर्घतम वृहत्तर उपन्यास?शैलेंद्र साहु के फेसबुक पेज़ से
सोचना ऐसा मुश्किल काम नहीं। अज़रबैजान से लेकर फाफामऊ, इलाहाबाद
आप (मतलब मैं) कुछ भी सोच सकते हैं। मैं मैडेलिन, कोल्मबिया
की सोचता हाथ थामे बैठा रहा, उड़ीसा माध्यमिक बोर्ड के होनहारों
ने सक्रिय होकर मुझे रोक लिया। हाई स्कूल में। दो बार। शैलेंद्र साहु का वॉटर कलर
में खूब हाथ चलता है, मगर लिखने के इस टेढ़े सवाल पर सिपाही ने
कुछ नहीं लिखा। नौ सौ पृष्ठ क्या, नौ पंक्तियां नहीं लिखीं।
मैडेलिन, कोल्मबिया के पैशनेट पाठकों के लिए नौ सौ मैंने भी
नहीं लिखा। एक सौ भी नहीं लिखा। मंगोलपुरी, दिल्ली के पाठकों
के लिए भी?
लिखना मुश्किल काम है। डेमन गैलगुट कह दें बड़ा आसान काम है, बायें
हाथ का खेल है जैसी हल्की टिप्पणियों पर मत जाइये। लिखने के लिए लिखना होता है। बहुत
सारे शब्द एक फ़ाईल में इकट्ठा करने होते हैं। एक दो तीन चार पांच.. गिनती का अंत
नहीं होता। लिखाई चलती रहती है, किताब चलने से क्या उठने तक
से इंकार कर देती है! रोज़ एक कहानी लिखने के खेलों में उलझकर
ऐसे ही मंटो तबाह नहीं हुए। तबाह मैं भी हुआ हूं, और बिना पाकिस्तान
गए हुआ हूं, मगर किताब ख़यालों में हुई हो, वास्तविकता में घंटा कुछ नहीं सिर्फ़ उम्र के साठ साल पूरे हुए हैं!
जबकि तीस की उम्र में अफ्रीका से लइका गोनकोर्ट तोड़कर ताव खा रहा है।
पता नहीं कइसे। हो सकता है मरने से पहले उपेंद्रनाथ अश्क बउआ को दो और तीन टीप दिये
हों?
मगर इतना मुश्किल क्यों है? वही, लिखना?
मेरी कविताओं की किताब साल के आख़िर में आ रही है। माथे में सब सजी हुई हैं। कुल बयासी कविताएं। बस लिखने का काम बचा है। जब तक कविताओं की किताब आये, तब तक एक पुराना पॉडकास्ट सुनिए। बिना लिखे पढ़ा गया है। पटाखों के शोर के बीच कभी सुन लेने का सुभीता हो ही जाएगा।
No comments:
Post a Comment